बाहर मैं मुस्कुराता हूँ
बाहर मैं मुस्कुराता हूँ
बाहर मैं मुस्कुराता हूँ, पर अंदर ही अंदर घुट रहा हूँ,
बाहर से जुड़ा दिखता हूँ, पर अंदर ही अंदर टूट रहा हूँ।
बहुत दर्द हैं इस सीने में, पर किस किस को दर्द सुनाऊँ?
दिल अंदर से रोता हैं, पर किस को दिल का हाल सुनाऊँ?
अच्छा बुरा बहुत देखा जीवन में, देख कर पहुँचा यहाँ तक,
बाहर तो सब ठीक ठाक हैं, पर चोट लगी हैं अंदर तक।
देखता हूँ मानवता की दुर्गति, होता दुःख मन में बहुत,
देखा लोगों का जमीर बिकते हुए, धोखे भी देखे हैं अकूत।
बड़ी पीड़ा होती है दिल में, जब अपना कोई करता है छल,
रोता रहता है दिल जार जार, मन भी हो जाता है दुर्बल।
कुछ चुभता है दिल में, मन में उठती अजीब सी कसक,
कुछ छूट रहा इन हाथों से, मिट रही जिन्दगी की महक।
पढ़ता हूँ अख़बारों में, किसी लड़की के बलात्कार का वर्णन,
किसी श्रद्धा के होते टुकड़े, किसी निर्भया का मान मर्दन।
किसी आरुषि का होता हत्याकांड, तब दिल ये खूब रोता है,
गुस्सा बहुत आता हैवानियत पे, क्षोभ बहुत तब होता है।
सोचता हूँ कभी कभी मैं, जाने किधर जा रहा है समाज?
क्यूँ हो गई भावनाएँ कुत्सित, मिट गया मन का परवाज़?
कैसे भूला दूँ इन बातों को, कैसे करूँ इन बातों को सहन?
क्या हो गया इस पीढ़ी को, क्यूँ करते हैं संस्कारों का हनन।
किस बात पर मैं गर्व करूँ, किस बात की मैं खुशियाँ मनाऊँ,
संस्कृति की अवनति होते देख, कैसे सुकून से मैं जी पाऊँ?
भूल चुका हूँ मैं मुस्कुराना, हो रही दिल में बहुत ही घुटन,
कुछ चुभ रहा है दिल में, कैसे मिटाऊँ मैं दिल की चुभन?