"अपना दुख"
"अपना दुख"
अपना दुःख और अपनी तकलीफ़
बाकी किसी से भी नही कोई पीर
दूजो के दुःख से न बहते कभी नीर
अपने गम से ही आदमी बहाता नीर
पीरपराई जाननेवाले खत्म हुए,वीर
जो दूसरों को तकलीफ़ में देते सहारा
खुदा कभी नही करता,उसे बेसहारा
छोड़ो करना मेरा दुःख,मेरी तकलीफ़
अपने से ज्यादा कई,दुःखी यहां शरीर
दूजो की थाली में देखना,छोड़ो घी क्षीर
जो अपने न,सब के दुःख में हो,गंभीर
उसकी बना देता,रब बिगड़ी तकदीर
मेरा छोड़ो,सर्व दुःख में खुद को जोड़ो
चलाते रहो,परोपकारिता के तुम तीर
उस जीवन का मिटा जाता है,तिमिर
जो परहित के लिये जलाता है,दीप
जब यह सुख,खुशी ही न रुके फिर,
गम की क्या रुकी रहेगी,यह समीर?
कर्म करो,निःस्वार्थ कर्म करो,वीर
जग ढीढ पत्थरों से निकाल दो,नीर
कर्म की यह रस्सी,बनेगी जंजीर
लगातार चलते रहो,चलते रहो,वीर
कैसे न मिलेगी मंजिल की लकीर?