अनकही
अनकही
जिसदिन तुमसे नज़रें
मिलाने की हिम्मत जुटा सकी मैं,
उस दिन तुम "तुम" न थे,
मैं भी कहाँ "मैं" रह गई थी ?
कोई और हो चुके थे हम-तुम,
किसी और के हो गए थे !
रास्ते हमारे अलग थे
दुनिया अलग बसा ली थी हमने।
खुशहाल जिन्दगी बीत रही थी,
सबकुछ था हमारे पास।
पर यादें बेशुमार,
बेचैन कर देती थी कभी-कभी !
कुछ प्रेमोन्माद का माहौल सा
बन रहा था फिर,
हम डूब रहे थे,
अपनी ही भावनाओं के
बवंडर में !
कहते हैं नाजायज़ कुछ भी
नहीं होता है प्यार में !
इसलिए-
चीख-चीखकर घोषित
करना चाहती है,
मेरी अनकही,
हाँ, मुझे तुमसे प्रेम है,
प्रेम है, प्रेम है।