अनकहे रिश्ते ...
अनकहे रिश्ते ...
आज अपने अनकहे रिश्ते की बात सुनाता हूँ,
गहरे जंगल, पहाड़ों की घाटी के साथ
सागर को आंखों में भरता हूँ।
कभी हरी भरी प्रकृति,
आकाश और प्राणीयों को निहारता हूँ,
कभी सापों की फुफकार से डरता हूँ,
तो सुनहरे भूरे चंद्रमा में खो जाता हूँ।
टूटते तारों से भी अपनी रात सजाये रखता हूँ
कभी रात सुनता श्वानों की आवाज,
कभी बाज की उड़ान देखता हूँ।
शरद ऋतु के पत्तों को वसंत में
फिर जन्म लेते देखता हूँ।
कभी देख लेता हूँ ओस पे अपने पैरों के निशान,
या सप्तरंगी इन्द्रधनुष में खो जाता हूँ।
झुकते पेड़ों में चित्र और घास पे सो जाता हूँ
कुछ ऐसे अनकहे रिश्ते में हर रोज निभा लेता हूँ।