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ritesh deo

Abstract

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ritesh deo

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अलफाज लिखूँ

अलफाज लिखूँ

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वो चाहते है मैं उनके लिए अल्फाज़ लिखूं,

समझ ही नहीं आ रहा झूठ लिखूं या इत्तु-सा अपने मन का हाल लिखूं..


मेरे मन का मौसम बेशक पतझड़-सा हैं,

सोच रही हूँ मगर..

अपने बंजर-ए-ज़मीन की गलियों में बहार-ए-मौसम का आगाज लिखूं..


बीत तो रही है अमावस्या से चॉंद सी जिंदगी,

मैं उनके होने से हौले -हौले पूर्णिमा के चॉंद की चॉंदनी बनूं..


मेरे मन में चल रहे अल्फाज़ों में जान बाकी ही कहां बची है-(

शायद उनको मैं अपने अल्फाज़ों की रुह-सा लिखूं..


समझ ही नहीं आ रहा मैं क्या लिखूं,

कुछ झूठ लिखूं या अपने मन का इत्तु-सा हाल लिखूं

               


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