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मिली साहा

Abstract

4.7  

मिली साहा

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अखबार के पन्ने

अखबार के पन्ने

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आजकल के रिश्तो के भी क्या  कहने,

पल में बिखरते जैसे अखबार के पन्ने,

जब बनते हैं रिश्ते तो पढ़ लेते चाव से,

फिर कचरा समझ फेंक देते किसी कोने,


छोटी-छोटी बातों को खूब बढ़ा चढ़ाकर,

जो रिश्तों का अखबार प्रकाशित होता है,

तो काली स्याही से लिखा एक एक शब्द,

रिश्तो की नींव को कमज़ोर कर जाता है,


जो अपनेपन का झूठा दिखावा करता है,

वही तो अखबार की सुर्खियों में रहता है,

सच्चाई की चमक नहीं है जिन रिश्तो में,

उन रिश्तो का अखबार सा वज़ूद होता है,


प्यार, एहसास, विश्वास की कीमत नहीं,

मन की बात हर कोई मन में दबा लेता है,

अपनों से अपना समझकर कुछ कहो तो,

विश्वास तोड़ अखबार सा शोर मचाता है।


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