अकेला
अकेला
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पेट में डर भरी गुदगुदी ,
चीखें निकाल देता था,
ऊंची डाल पर बंधा वो झूला
चोटी पहाड़ की, कम ऊंची न थी,
उस से ऊंचा झूला था।
हवा की ठंडक बढ़ जाती
राजू जब धक्का देता था,
लौट के आता सांस आ जाती,
ठंड में पसीना छूटा था।
सुई जैसी पत्तियों वाला,
पूरे साल हरा ही रहता था।
यादों के कोने में,
वो चीड़ का पेड़ रहता है।
बांहों में डाल बांहे, सभी तुम आ जाओ,
अब भी वहीं खड़ा हूं अकेला,
रोज़ मुझ से कहता है।
