आवारगी
आवारगी
जीवन की चादर इतनी फैलाई कि हालातों कि मार से वो भी फट गई
जो जिंदगी कभी पूरी हुआ करती थी छोटे-मोटे, कटे-फटे टुकड़ों में बंट गई
रत्ती भर सी उठा लाए हो खुद्दारी की कतरने न जाने कहां कहां से
इक पुरानी सी इज्जत की कमीज भी बेगैरती के कीचड़ से अट गई
दूरियां सबब थीं, वक्त की नजाकत थी, ख्वाम खां की पर्दादारी नहीं थी
मर गया आंखों का पानी भी तब से, जब से तेरी दीवार उसकी दीवार से सट गई
यह काली स्याही कुछ पन्नो कि मेरे ज़मीर पर बोझ थी
तेरी नजर का पानी ऐसा उतरा कि अंधेरों की बदली भी छंट गई
ये आवारगी कि मैल है या फिर की सदियों से नहीं नहाए हो
शर्मसार हो या फिर की वक्त की गर्त में अपना मुंह छुपाए हो
किसी तरह की रियायत की मुझसे उम्मीद करोगे भी तो क्यों करोगे
तुम सुबह के भूले थोड़े ही हो जो शाम को घर लौट आए हो।