आसमां से गुफ़्तुगू
आसमां से गुफ़्तुगू
अक्सर चलती हैं रातों को मेरी आसमां से गुफ़्तुगू
मैं कुछ अपनी कहता हूँ वो कुछ अपनी सुनाता है
चलता है दौर अहल-ए-दिल-ए-किस्सागोई का
मेरी बातों पर अक्सर चाँद भी खिलखिलाता है
बाँट लेता हूँ तन्हाई बिखरे सितारों संग लफ़्ज़ों में
फ़लक़ भी आँखों की नमी का गवाह बन जाता है
गमगुसार तो बहुत से है मेरे दर्द को बढ़ाने के लिए
रात को तन्हा आसमां ही सच्ची दोस्ती निभाता है
क्या कहूं कि आलम-ए-महफ़िल भी तन्हा है ‘वेद’
उसकी यादों का कारवां ख़्वाब बन कर सताता है।