आस के दिये
आस के दिये
दिये सगं अपनी आने वाली ख़ुशियों की दुकान लगाये बैठा है,
भूल कर अपना मासूम बचपन, ज़िम्मेदारी का बोझ उठाये बैठा है !
सपने तैर रहे है मासूम आखोँ में, ज़हन मे भूख उकुलाती है,
कब बिकेंगे सब दिये, मन ही मन में चिन्ता कुलबुलाती है !
जमा होते है जब कुछ पैसे, मन ही मन हिसाब लगाता है ,
कितनी कमाई हुई, रूक-रूक कर जमा-जोड़ उगलियों पर गणित बनाता है !
कूट-पीस कर मिट्टी कड़ी मेहनत से, आस की आग में दीये पकाये हैं,
ख्याल बुने मन में बेचकर माटी के दिये अपनों के सपनों को ख़रीदना है !
गुहार लगाये आने-जाने वालों से ,ख़रीदो कुछ दिये चाहे कम क़ीमत ही दो,
बेच इनको आयेगीं घर ख़ुशियाँ, फिर दिवाली हम भी मनायेंगे।