आरज़ू
आरज़ू
ये आरजू है कि
जब भी गले लगाऊं उसे
जिस्म ए जात से
बाहर निकाल लाऊं उसे
वो जल रहा था..
कभी धूप की तपिश में..
मिला जो अब तो
ऊढ़ा दूंगा अपनी छाँव उसे
वो शहर शहर रोशन सही
मगर एक दिन
हवाएं याद दिलाएंगी
अपनी गलियां उसे
वो अपने ख्वाब में
मुझी को देखता हो शायद
मैं बेचैन सही
सोते क्यों खामखा जगाऊं से उसे।