Ghazal No.14 अपने हाथों से आँखों से ख़्वाब नोचता हू
Ghazal No.14 अपने हाथों से आँखों से ख़्वाब नोचता हू
अपने हाथों से आँखों से ख़्वाब नोचता हूँ मैं
जब भी कभी तेरे बारे में सोचता हूँ मैं
जब से पाया नहीं है खुद को खुद में
तब से बस तुझमें खुद को ढूँढ़ता हूँ मैं
ग़ुरूर की जात में असीर था तो पत्थर था मैं
रिहा हुआ उसे तो अब दरिया सा बहता हूँ मैं
कुछ इस कदर तुझको समाया है खुद में कि
अपना अक्स देखकर आईने से लड़ता हूँ मैं
बड़ा गुरूर है समँदर तुझे अपने आ'माक़ पर
आ देख कि साहिल पर डूबता हूँ मैं
क्यूँकर हूँ उस एक मौत से मैं ख़ौफ़-ज़दा
यहाँ तो हर दिन जीने के लिए हर रात मरता हूँ मैं
ख़्वाबों में तो कितने अहद-ए-वस्ल किये तुमने
अब आ कि अपनी आँखें खोलता हूँ मैं
मादूम हुए कितने किरदार दुनिया में मेरे किरदार से
और इसी किरदार को घर में आईने से छुपाता हूँ मैं
है राब्ता क्या ज़मीँ के चकोर का महताब-ए-आसमाँ से
तजरबा-ए-हिज़्र से अब ये खूब समझता हूँ मैं
जुनूँ-ए-इश्क़ में अजब मंज़रों से गुजरा हूँ मैं जिन पर
आती थी हँसी कभी उन बातों पर अब रोता हूँ मैं
तुझे खुद में होने का यूं वहम पाल रखा है कि
तुझे याद करता हूँ और फिर खुद हिचकी लेता हूँ मैं
तेरे मेरे बीच के फासलों की खाईं को पाटने के लिए मेरे
सेहन में तेरे फेंकें हुए ग़म के पत्थरों को जोड़ता हूँ मैं
इस कदर शआराँ हो गया हूँ क़ैद-ए-ग़म का
कि ज़ंज़ीर-ए-बेबसी को खुद पावँ में बाँधता हूँ मैं
सबक-ए-किताब से लम्हा लम्हा जोड़ के बनाया था खुद को
सबक-ए-दुनिया से अब क़तरा क़तरा खुद को तोड़ता हूँ मैं।