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Surendra kumar singh

Abstract

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Surendra kumar singh

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आकर्षण

आकर्षण

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पृथ्वी के आकर्षण के वशीभूत

सूरज चला आता है

निहारने पृथ्वी का सौंदर्य तो

सुबह होती है।


घने अंधेरे में जब साया भी

किसी हलचल से

डर कर खामोश खड़ा रह जाता है

और कोई चला आता है


उबड़ खाबड़ जमीन पर

नये रास्ते बनाता हुआ

घने अंधेरे में बेख़ौफ़ तो

सुबह होती है।


जब चारों तरह शोर ही शोर होता है

समझ पर जज्बात का ग्रहण लग जाता है

सिरफिरापन बेलगाम हो जाता है

विश्वास,अविश्वास की जंग

रुकने का नाम नहीं लेती है तो


मूर्तिवत, ठकुवाया मनुष्य

अपने अन्तरशक्ति को समेट कर

हवा की तरह गुनगुनाने लगता है

तो सुबह होती है।


कितना दिलचस्प है यह सब

और इस मिथक का टूटना कि

जब सूरज उगता है

तो सुबह होती है।


सच अनावृत हो गया है

अपने आप कि

जब हम जाग जायें तो

सुबह होती है

 और सुबह हो गयी है।


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