उलटे बदले
उलटे बदले
डर के डरावने सपनों से जागता था रातें
आँख लग गयी एक रात यूँ जागते जागते
फिर चलपड़ा सुनसान सपनों के बताए रस्ते
उलट बदल तब गया था सब कुछ,
लोग थे तोड़ रहे
वहाँ की छोटी-बड़ी सारी इमारतें
मसले पड़े थे फूल-पत्तें सारे बगिचों की
थे रहे मरोड़ते चले गर्दनें प्यारी परिंदों की
उनकी नज़रें माँग रही थी भीख मुझे मदद की
उलट बदल तब गया था सब कुछ,
कोइ भीषण आग सी
थी उन लोगों मे जोरों से दहकी
फिर देखा के गला काट वो रहे थे खुदके
सारे थे लग रहे किसी जादुई-छल मे बहके
न जाने कबसे-कैसे बन चुके थे प्यासे खून के
उलट बदल तब गया था सब कुछ,
लगता था के जैसे
खून की बुंदे थे बादलों से टपके
क्यों था हर कोइ मरने की फिराक मे
एक के बाद एक थे मनाते मौत की रस्में
जैसे मरने को किसी से खा लीए हों कसमें
उलट बदल तब गया था सब कुछ,
जैसे किसी शैतान की
वश मे थे उन सबकी जिस्में
सह के चुपचाप रहना हुआ न मुझसे
दौडा उन्हें रोकने की चाह मे रक्तपात से
हकीकत और ख्वाब की जब तोड़ा बंदिशें
उलट बदल तब गया था सब कुछ,
मुझे फाँसने को जैसे
थी वो बनी-बनाई पुरी साजिशें