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अनाथ भूखा बचपन

अनाथ भूखा बचपन

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जीवन जीने के लिए जूझता है वो 

यूं ही बचपन से जवान हो जाता है वो 

सूरज की किरणों से ही पल जाता है वो 

अपनी मासूमियत को दो पैसे के लिए

बेचता है वो 


आँखों में चमक चेहरे पर मुस्कान रखता

है वो 

बड़ा अफसर बनने का सपना देखता है वो 

लोगो का गुस्सा और दुत्कार सहता है वो 

दो जून की रोटी के लिए दर दर भटकता

है वो 


धूल मिट्टी की चादर ओढ़ खुले आसमान

में सोता है वो

सुबह सवेरे अलसाई अलसाई आँखों से

भूखा अधनंगा पीठ पर बोरा उठा कर 

कूड़े के ढेर में रोटी तलाश करता है वो


नन्हे कोमल हाथों से बर्तन चमकाता है वो

कारखानों में भारी बोझ उठाता है वो

बड़े साहब लोगो के जूते साफ करता है वो

बचपन क्या होता है ये नहीं समझता है वो


खेल खिलौनों से क्या खेलेगा वो 

दूसरों के हाथ का खिलौना बनता है वो

एकता में अनेकता वाले स्वतंत्र भारत में

अमीर गरीब का भेदभाव झेल रहा है वो


उन मासूमों पर भी तो एक नजर डालो 

स्वर्णिम भारत का अनमोल भविष्य है वो।

 

         


       

         



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