पैरों की लकीरें
पैरों की लकीरें
पैरों की लकीरों का क्या कहना, जब तक रहती हैं भाग्य काबू करती हैं,
बढती उम्र के साथ ज्यों ज्यों घिसने लगती हैं, तो चाल काबू करती हैं
कुछ दिनों पहले हमारा एक मित्र, नहाते हुए स्नान घर में फिसल गया,
कूल्हे के जोड़ की हड्डी टूट गई, जोड़ का प्रत्यारोपण कराना पड़ गया।
इसी दौरान अस्पताल में कूल्हे के, जोड़ प्रत्यारोपण का विज्ञापन पढ़ा,
दुर्घटनाओं के सारे आंकड़े याद नहीं, लेकिन बुढ़ापे का आंकड़ा था बडा।
इसी घटना के सिलसिले में बातचीत के दौरान पड़ौसी मित्र ने बताया,
पिछले ८ साल से नहाने के वक़्त, बाथरूम का कुंडा कभी नहीं लगाया।
बच्चे बाहर होने के कारण घर में सिर्फ वो एवं उनकी पत्नी ही रहते हैं
गोविन्द दुर्घटना से दूर रखे, बुढ़ापे में कुछ ज्यादा ही सावधानी बरतते हैं।
फर्श पर फैला हुआ पानी हमारे लिये, कल मुसीबत का सबब बन गया,
गीली फर्श पर फिसलके धड़ाम से ऐसे गिरे, कि एक किस्सा बन गया।
बुजुर्ग इन्सान तो सूखी फर्श पर भी, बहुत संभल २ कर कदम रखते हैं,
मार्बल फर्श पर पानी में फिसलना, ऐसे लगा जैसे तेल पर पैर पड़ गया।
जब जिन्दगी के आखिरी पड़ाव पर, शरीर ने अपना संतुलन खो दिया,
शरीर की क्षमता का क्या दोष, पैरों की लकीरों ने ही साथ छोड़ दिया।
वक़्त ने पैरों की लकीरें घिसकर, तलुओं को एकदम सपाट कर दिया,
और मारबल की फर्श पर पैरों की पकड़ को, बिलकुल साफ़ कर दिया।
गोविन्द हमें अपने आखिरी समय का, एहसास कराना तक तो ठीक है,
पैरों की लकीरें मिटाके चलने फिरने से, मोहताज क्यों करना चाहते हो।
अगर फिसलने के डर से चलने में डरेंगे, तो तेरे द्वार तक कैसे पहुंचेंगे,
'योगी' जीवन के इस मोड़ पर हमको, खुद से दूर क्यों रखना चाहते हो।